मुझे रोना नहीं आता
मेरी आखों के आँसूं
सूख चुके हैं,
क्यों मेरे चेहरे पर
ये कालिख हैं,
क्यों मेरा बचपन
अंधेरो से गुजर रहा हैं,
मुझे घर बनाने दो
मुझे उसके साथ
मस्ती करना हैं,
किसने मेरा बचपन
छीन लिया
दूसरों को देखती हू
तो आँखे घबरा जाती हैं,
फिर नई कहानी की
आस बंध जाती हैं,
कौन इस कहानी को
पूरा करेगा
कौन मेरे चेहरे
को सुंदर करेगा
मैं अभी एक फूल हूँ,
जो अनदेखी से मुरझा रही हूँ,
उसे अपनत्व के
पानी से सींचो
जिससे मैं भी एक फूल की तरह
खिल संकू और
इस संसार को महका संकू...
Saturday, December 19, 2009
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3 comments:
तुम इतने समय तक साथ रहे, पर मुझे कभी भनक भी नहीं लगी कि मैं इतने अच्छे कवि के साथ रह रहा हूं. वाह सुनील बाबू बढिया है...और तुम तो चित्रकार भी हो, यानी पूरे कलाकार हो. वैसे यह बताओ कि ये लिखना-पढना किसकी "प्रेरणा" से शुरू किया?
विवेक गुप्ता, भोपाल
behtrin kavita.... dil gardan-gardan ho gya.....
bahut achchha likha hai aapne.
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